प्रशासनिक लापरवाही का शिकार, किसान
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खाद संकट से त्रस्त किसान आंदोलन को मजबूर
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मुख्य मार्ग पर एक घंटे चक्काजाम, खाद दिलाने की मांग की
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सिवनी मालवा । खाद वितरण की बदहाल व्यवस्था और प्रशासनिक लापरवाही ने एक बार फिर साबित कर दिया कि “कृषि प्रधान देश” में किसानों की समस्याएं केवल भाषणों और घोषणाओं तक सीमित रह गई हैं। शुक्रवार को तहसील क्षेत्र के सैकड़ों किसान जब खाद के लिए भटकते-भटकते थक गए और शासन-प्रशासन की उपेक्षा से आक्रोशित हुए, तो उन्हें मजबूर होकर सड़क पर उतरना पड़ा। नर्मदापुरम-हरदा मुख्य मार्ग पर करीब एक घंटे तक चक्काजाम कर अपनी पीड़ा को व्यक्त की और खाद दिलाने की मांग की ।
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प्रशासन की नाकामी का आलम यह है कि लगातार कई दिनों से किसान खाद केंद्रों पर लाइन में खड़े हो रहे हैं, लेकिन उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ रहा है। यूरिया और अन्य आवश्यक खाद की अनुपलब्धता ऐसे समय में हो रही है जब धान और मक्का जैसी खरीफ फसलें अत्यंत संवेदनशील अवस्था में हैं और उन्हें तुरंत पोषण की आवश्यकता है।
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किसान नेताओं का कहना है कि “शासन कहता है कि किसानों की आय दोगुनी की जाएगी, लेकिन जब खाद, बीज और दवाएं ही समय पर नहीं मिलेंगी, तो उत्पादन कैसे होगा? और जब उत्पादन घटेगा तो किसान की आय कैसे बढ़ेगी?” यह सवाल केवल अशोक पटेल का नहीं, बल्कि उन हजारों किसानों का है जो व्यवस्था के इस ढांचे में रोज अपमानित हो रहे हैं।
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प्रशासन और सहकारी समितियों की नाकामी को इस बात से समझा जा सकता है कि टोकन वितरण जैसी आधारभूत व्यवस्था भी समय रहते नहीं की गई, जिससे स्थिति उग्र होने की नौबत आ गई। आंदोलन स्थल पर पहुंचे अधिकारी – एसडीओपी महेन्द्र सिंह चौहान, थाना प्रभारीगण व एसडीएम ने जब स्थिति बिगड़ती देखी, तब जाकर टोकन सिस्टम शुरू करने और सभी किसानों की सूची बनाने का आश्वासन दिया।
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प्रश्न उठता है कि क्या प्रशासन का दायित्व केवल आग बुझाने तक सीमित रह गया है? जब किसान सड़कों पर उतरते हैं, तभी तंत्र जागता है? क्या खाद जैसी मौलिक चीज़ की उपलब्धता सुनिश्चित करना प्रशासन की प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए?
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खाद के लिए सड़क पर बैठा किसान इस देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, लेकिन अफसोस कि उसकी अनदेखी करना इस तंत्र की आदत बन चुकी है। यदि यही हाल रहा, तो “जय जवान, जय किसान” जैसे नारों का कोई अर्थ नहीं बचेगा।
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किसानों के इस आंदोलन ने प्रशासन की असंवेदनशीलता को एक बार फिर उजागर कर दिया है। अब वक्त आ गया है कि खाद वितरण, बीज व्यवस्था और कृषि संसाधनों की पारदर्शी नीति बनाई जाए और ज़मीनी स्तर पर उसे सख्ती से लागू किया जाए। वरना किसान सड़क पर ही मिलेगा — कभी आंदोलन करते हुए, तो कभी अपनी उम्मीदें छोड़ते हुए।

 
								 
								 
															
 
															 
             
            





