हरियाली उत्सव : प्रकृति के प्रति श्रद्धा और संस्कृति का समन्वय
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सिवनी मालवा । श्रावण मास, भगवान शिव की उपासना का पावन काल, जब भक्तजन उपवास, रुद्राभिषेक, भजन और सेवा के माध्यम से अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं। इसी आध्यात्मिक वातावरण में सिवनी मालवा के ब्राह्मण महिला संगठन द्वारा हनुमान धाम दूधियाबड़ में आयोजित हरियाली उत्सव में न केवल धार्मिक भावनाओं को जागृत किया, बल्कि प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भी अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया।
श्रावण शिवरात्रि के शुभ दिन पर जब भक्तों का मन भगवान शिव की आराधना में लीन था, तब इन श्रद्धालु महिलाओं ने पर्यावरण को शिव का रूप मानते हुए वृक्षारोपण कर धर्म और प्रकृति का अद्भुत संगम रचाया। यह आयोजन मात्र एक धार्मिक कार्यक्रम नहीं रहा, बल्कि सांस्कृतिक मूल्यों और पर्यावरणीय चेतना का सशक्त माध्यम बन गया।
भजन की मधुर लहरियों से प्रारंभ हुआ यह उत्सव जैसे-जैसे आगे बढ़ा, वातावरण में भक्ति और प्रकृति प्रेम का संचार होता गया। पारंपरिक झूले, श्रावण गीत, मेहंदी और फलाहार ने इस आयोजन को पूर्ण रूप से भारतीय संस्कृति से जोड़ा। विशेष रूप से वृक्षारोपण कार्यक्रम — जिसमें आम, जामुन, अमरूद, हरश्रृंगार, बिलपत्र, रामफल जैसे पवित्र और फलदायक पौधों का रोपण किया गया — यह न केवल पर्यावरण की सेवा थी, बल्कि शिव भक्ति का वास्तविक रूप भी।

धार्मिक दृष्टिकोण से बिल्वपत्र का भगवान शिव के पूजन में अत्यंत महत्व है। ऐसे में संगठन द्वारा प्रत्येक महिला को बिलपत्र का पौधा भेंट करना एक शुभ और दूरदर्शी कार्य सिद्ध हुआ। यह इस बात का प्रतीक है कि हर परिवार शिव के आराध्य बिल्ववृक्ष को अपने आंगन में रोपित कर पुण्य अर्जित करे।
इस कार्यक्रम में संगठन की सक्रिय सदस्यों — ज्योति व्यास, चंचल शास्त्री, भावना पुरोहित, रश्मि थापक, सीमा पाराशर, दीप्ति भारद्वाज, सुषमा शास्त्री, ममता अवस्थी, क्षमा शर्मा, रंजू पंचारिया, नीतू चतुर्वेदी, रूपाली असंगे, नेहा पंचारिया, आयुषी पुरोहित, सीमा पाठक, मीनाक्षी शास्त्री — ने नारी शक्ति की एकजुटता, जागरूकता और सामाजिक उत्तरदायित्व की सशक्त छवि प्रस्तुत की।
हरियाली उत्सव आज के समय में धर्म और कर्तव्य का संतुलन कैसे हो सकता है, इसका आदर्श उदाहरण है। यह संदेश देता है कि भक्ति केवल मंदिरों तक सीमित नहीं, बल्कि प्रकृति की रक्षा में भी निहित है। जब महिलाएं इस प्रकार सामूहिक रूप से पौधे रोपती हैं, झूले झूलती हैं, पारंपरिक गीत गाती हैं — तब यह संस्कृति नहीं, संस्कार बन जाती है।
यह आयोजन इस तथ्य को रेखांकित करता है कि धार्मिक आस्थाएं जब प्रकृति से जुड़ती हैं, तब समाज में हरियाली ही नहीं, सद्भाव, समर्पण और संतुलन भी पनपता है।

विजयसिंह ठाकुर
धार्मिक एवं सांस्कृतिक शोधकर्ता
नर्मदा केसरी संपादक








